संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत ‘हम भारत के लोग..’ से होती है, लेकिन उसी संविधान के अनुसार चल रहे शासन-प्रशासन में हम लोग यानी आम आदमी खुद को हाशिये पर पाता है। रोजमर्रा के जीवन में बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं होतीं। इसलिए नहीं होतीं, क्योंकि न तो जनप्रतिनिधि जवाबदेही के दायरे में हैं और न ही प्रशासनिक अधिकारी और कर्मचारी, जिन पर इन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का दायित्व है।
लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में बहस और चर्चा के बीच यह सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए कि जिस जनता के लिए संविधान को अंगीकृत-अधिनियमित किया गया, उसके प्रति शासन और प्रशासन की जिम्मेदारी कैसे सुनिश्चित की जाए।
जनता चुनाव में वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनती है, सरकार बनवाती है, लेकिन चुनाव जीतने के बाद अक्सर जनप्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारियों को भूल जाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि स्पष्ट तौर पर जवाबदेही तय नहीं है। उनके लिए अपना घोषणापत्र पूरा करने की कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है।
अब जनप्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाने और उनकी स्पष्ट जवाबदेही तय करने की मांग उठ रही है। साथ ही हर पद पर बैठे अधिकारी का केआरए (की रिस्पांसिबिलिटी एरिया) भी तय होना चाहिए। ताकि किसी भी तरह की हीलाहवाली पर उसकी जिम्मेदारी तय की जा सके। किसी बड़ी घटना के बाद कार्रवाई के नाम पर किसी अफसर का स्थानांतरण और निलंबन भी उसे जवाबदेह नहीं ठहरा पाता।
जवाबदेही के लिहाज से अगर सांसद, विधायक, पार्षद आदि चुने हुए प्रतिनिधियों को देखा जाए तो क्षेत्रीय स्तर पर विकास कार्यों और प्रशासनिक कामकाज पर निगाह रखने की जिम्मेदारी इन्हीं जनप्रतिनिधियों की है। लेकिन आम आदमी यह जान ही नहीं पाता कि किस कार्य के लिए पार्षद जिम्मेदार हैं, किसके लिए विधायक अथवा सांसद, क्योंकि इसकी स्पष्टता कहीं नहीं है। वे सड़क के गड्ढों के लिए भी सांसद की ओर निगाह डालते हैं, जबकि यह कार्य पार्षद और निकायों के अफसरों और कर्मचारियों का है।
इसी तरह प्रशासनिक तंत्र के मामले में यह बिल्कुल साफ नहीं है कि स्कूल, अस्पताल, सफाई, सड़क, बिजली और पानी जैसी नागरिक सुविधाओं के लिए अंतत: किसे जिम्मेदार ठहरा जाए।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और जाने-माने कानूनविद राकेश द्विवेदी कहते हैं कि चाहें जो सरकार आए, लेकिन निम्न स्तर पर आम आदमी को भ्रष्टाचार से निजात नहीं मिलती। उसे कदम-कदम पर भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता है।
संवैधानिक प्रविधान या कानून में सुधार जरूरी जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही पर पूर्व एडीशनल सालिसिटर जनरल और वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्दार्थ लूथरा कहते है कि सांसद व विधायक निर्वाचित होने के बाद संविधान की शपथ लेते हैं, लेकिन उस शपथ को लागू कराने का तरीका हमारे पास नहीं है।
लूथरा कहते हैं कि ली गई शपथ लागू कराने और इन्हें जवाबदेह बनाने के लिए या तो कोई संवैधानिक प्रविधान किया जाए या फिर कानून लाया जाए वरना शपथ का कोई मतलब नहीं है। बात सिर्फ जवाबदेही तक ही सीमित नहीं रह गई है। अब तो ऐसे भी उदाहरण सामने हैं कि मंत्री तो मंत्री मुख्यमंत्री भी जेल से महीनों सरकार चलाता रहा और कोई भी ऐसा संवैधानिक प्रविधान नहीं था जो उसे पद छोड़ने को मजबूर कर सके।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश एसआर सिंह सुप्रीम कोर्ट का मनोज नरूला मामले में दिया गया फैसला याद दिलाते हैं जिसमें शीर्ष अदालत ने कहा था कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को ये सोचना होगा कि वे ऐसे व्यक्तियों को मंत्री न बनाएं जिन पर आपराधिक आरोप हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह सिर्फ सुझाव था, उसमें बाध्यता नहीं है। जस्टिस सिंह कहते हैं कि ऐसा न हो, इसके लिए बाध्यता के प्रविधान किए जाने चाहिए।
राजनेताओं की आचार संहिता, अधिकारियों के लिए केआरए
आम जनता अब राजनेताओं के लिए आचार संहिता और अधिकारियों के लिए स्पष्ट केआरए की मांग करने लगी है। सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह कहते हैं कि जनप्रतिनिधियों के लिए एक आचार संहिता तय होनी चाहिए, जिसमें उनके जनता के प्रति कर्तव्य स्पष्ट हों और उनका पालन न करने पर जनता को अदालत जाकर उनके खिलाफ कार्रवाई का आदेश लेने का हक मिलना चाहिए।
ऐसे ही अधिकारियों के लिए काम में हीलाहवाली या भ्रष्टआचरण पर अनुशासनात्मक और दंडनीय कार्रवाई होनी चाहिए। साथ ही उनके सर्विस रिकार्ड में उनकी ऐसी हर लापरवाही दर्ज होनी चाहिए। किसी अधिकारी के खिलाफ एक निश्चित संख्या में शिकायत आने पर निर्णायक कार्रवाई का प्रविधान होना चाहिए।
फिर चर्चा में राइट टु रिकॉल